December 23, 2024

Devsaral Darpan

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जवाहरलाल नेहरू- यहां बीते उनके अंतिम चार दिनों की कहानी, उन्हे बेहद पसंद थी देहरादून की वादियां

देहरादून; सबको लुभाने वाली देहरादून की वादियां हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी बहुत पसंद थीं। आजादी से पहले और बाद में वे अपने पूरे परिवार के साथ यहां वक्त बिताना पसंद करते थे। नेहरू का देहरादून के प्रति यह प्रेम और लगाव जीवन भर बना रहा। विडंबना यह है कि उनके जीवन के अंतिम चार दिन भी देहरादून में ही बीते थे। उनके जीवन से जुड़े कुछ ऐसे ही पलों की कहानी 92 वर्षीय अनुभवी पत्रकार और लेखक राज कंवर ने अमर उजाला के साथ साझा की।

उन्होंने बताया कि नेहरू जी पहली बार वर्ष 1906 में मसूरी आए थे। तब उनकी उम्र मात्र16 साल थी। मसूरी की वादियां उन्हें इतनी पसंद आईं कि उसके बाद वे गर्मियों के दौरान आराम और विश्राम के लिए अक्सर मसूरी जाते थे। अमूमन उनके साथ उनके पिता, माता, पत्नी, बेटी, बहनें और भतीजी होते थे। तब वे मसूरी के सेवाय होटल में ठहरना पसंद करते थे।

उस वक्त देश के नक्शे पर देहरादून भले ही उस समय एक छोटा बिंदु मात्र था लेकिन वह राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को आकर्षित करता था। नेहरू ने यहां कई राजनीतिक दौरे भी किए। कभी स्वेच्छा से तो कभी अनिच्छा से,  क्योंकि कई बार उन्हें तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के ‘अतिथि’के रूप में यहां लाया गया था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जब भी उन्हें गिरफ्तार किया जाता तो वे देहरादून जेल को तरजीह देते थे जिस पर ब्रिटिश सरकार उन्हें यहां की जेल में ही रखती थी। वे तीन बार देहरादून जेल लाए गए। जून 1934 में यहां जेल में ही उन्होंने अपनी बहुप्रशंसित आत्मकथा लिखनी शुरू की थी। उस वक्त एकांत कारावास में उनके साथी यहां के पंछी हुआ करते थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा में इसका जिक्र भी किया कि वे जेल की कोठरी से पहाड़ों को नहीं देख सकते थे मगर महसूस करते थे।

आसपास चहचहाने वाले पक्षियों से उनकी निकटता रही और उनसे एक रिश्ता बन गया था। उन्हें यहां की बसंत ऋतु बहुत पसंद थी क्योंकि यह बेहद सुहावनी और मैदानी इलाकों के मुकाबले काफी लंबी होती थी। उन्होंने यहां की वर्षारहित शरद ऋतु का भी जमकर आनंद उठाया। आजादी मिलने के बाद प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू ने कई अवसरों पर देहरादून और मसूरी का दौरा किया। उन्हें देहरादून और उसके सर्किट हाउस का माहौल इतना पसंद था कि वे बार-बार आते थे। उस वक्त उन्हें आमंत्रित करना आसान था और स्थानीय कांग्रेसी नेताओं ने उनकी पसंद का पूरा फायदा उठाया। महावीर त्यागी ने कई मौकों पर उनकी मेजबानी की। केडी मालवीय ने उन्हें दो बार ओएनजीसी आने के लिए आमंत्रित किया। एक कार्यक्रम मैं भी मौजूद था जब नेहरू ने ओएनजीसी के युवा पायनियर्स के पहले बैच (1956 ) को संबोधित किया था। इसके बाद तत्कालीन विधायक गुलाब सिंह के आमंत्रण पर चकराता के जौनसार बावर क्षेत्र में त्यूनी के उनके दौरे की कवरेज करने का सौभाग्य भी मुझे मिला। एक बार उन्होंने भारतीय सैन्य अकादमी में पासिंग आउट परेड में सलामी भी ली तब भी मैं कवरेज के लिए मौजूद रहा।

जनवरी 1964 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के भुवनेश्वर अधिवेशन में स्ट्रोक से पीड़ित होने के बाद वे स्वास्थ्य लाभ के लिए 23 मई, 1964 को देहरादून पहुंचे। वे अपने पसंदीदा सर्किट हाउस में रुके। उन्हें यहां के वृक्षों और हरियाली से भरपूर लॉन से विशेष लगाव था। वे यहां अपने पसंदीदा कपूर के पेड़ की छांव में घंटों चुपचाप बैठे रहते। पक्षियों की चहचहाहट सुनते। 25 मई को नेहरू ने अपने पुराने मित्र श्रीप्रकाश, पूर्व मंत्री और राज्यपाल से मसूरी रोड पर आठ मील की दूरी पर कोठालगांव में मुलाकात की। उनके साथ दोपहर का भोजन किया और सर्किट हाउस लौट आए। वह दिल्ली वापस नहीं जाना चाहते थे। इससे पहले भी वह कई बार अपने दिल्ली प्रस्थान को एक दिन के लिए स्थगित कर चुके थे। 27 मई की दोपहर को नेहरू का दिल्ली में कार्यक्रम था। उस वक्त जिलाधिकारी ने उनके मूड को भांपते हुए प्रवास बढ़ाने का सुझाव दिया। साथ में कहा कि दिल्ली से सभी महत्वपूर्ण फाइलें यहीं देहरादून मंगवा ली जाएंगी। काम यहां से भी हो सकता है। इस पर नेहरू ने दार्शनिक अंदाज में उत्तर दिया, ‘हां, काम तो सब हो जाएगा।

आखिरकार 26 मई की दोपहर को तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। सबको लगा कि  दिल्ली  में उन्हें एक रात का आराम मिलेगा जिससे वे तरोताजा होकर अगले दिन सभी कार्यक्रमों में शिरकत कर सकेंगे। 26 मई की दोपहर 30 लोगों का एक समूह, जिसमें मैं भी शामिल था, उन्हें विदा करने के लिए छावनी स्थिति पोलो मैदान में मौजूद था। वहां हेलीकॉप्टर से उन्हें सहारनपुर जाना था जहां से वायुसेना के विमान से उन्हें दिल्ली पहुंचना था। हेलीकॉप्टर के दरवाजे पर खड़े होकर उन्होंने हाथ हिलाकर विदा ली और कुछ ही देर में उनका हेलीकॉप्टर धूल के गुबार छोड़ता हुआ उड़ गया। वहां से लौटते हुए हम में से किसी ने भी सपने में भी नहीं सोचा था कि यह नेहरू की आखिरी झलक थी।
अगली दोपहर दिल्ली में उनके निधन की खबर ने हम सभी को झकझोर कर रख दिया। नेहरू 27 मई की दोपहर को उनसे तो नहीं मिल सके जिनसे उनका मिलना तय था लेकिन वह सृष्टि निर्माता से मिलने चले गए। मैंने खामोशी से कई आंसू बहाए । साथ ही उनसे अधिकाधिक बार नहीं मिल पाने के लिए खुद को श्राप भी दिया। मैं तभी उनसे मिल पाता था जब वे देहरादून आते थे। उनके आकर्षक और शालीन व्यवहार के साथ सहज शिष्टाचार के सभी कायल थे। वे मुझे पसंद करते थे और अक्सर कहते थे, ‘ फिर आना’।

नोट: (92 वर्षीय राज कंवर देहरादून के अनुभवी पत्रकार और लेखक हैं। उन्होंने नेहरू और इंदिरा गांधी पर विस्तार से लिखा है। कई किताबें और संस्मरण लिख चुके कंवर आज भी हर रोज आठ घंटे लेखन में बिताते हैं। )

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