December 23, 2024

Devsaral Darpan

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उत्तराखंड की सियासत का सबसे बुरा पक्ष, दिल्ली में बैठे केंद्रीय नेताओं के रिमोट कंट्रोल से तय होते रहे हैं फैसले !!

उत्तराखंड; पिछले 22 वर्षों में उत्तराखंड की सियासत का सबसे बुरा पक्ष यही रहा कि यह अस्थिरता की शिकार रही। प्रचंड बहुमत मिला तो भी सत्ता अस्थिरता के श्राप से मुक्त नहीं हो पाई। तीसरे विकल्प की संभावनाओं के दावों और दलीलों के बीच प्रदेश की सत्ता पर भाजपा और कांग्रेस ही बारी-बारी से काबिज हुए। इस मिथक को तोड़ लगातार दूसरी बार सरकार बनाने का नया रिवाज भाजपा ने शुरू किया, लेकिन दोनों सियासी दलों की सियासत का एक कड़वा सच यह भी है कि दोनों ही दलों के फैसले दिल्ली में बैठे केंद्रीय नेताओं के रिमोट कंट्रोल से तय होते रहे।

मिली जानकारी के अनुसार, दावों और दलीलों के बीच प्रदेश की सत्ता पर भाजपा और कांग्रेस ही बारी-बारी से काबिज हुए। इस मिथक को तोड़ लगातार दूसरी बार सरकार बनाने का नया रिवाज भाजपा ने शुरू किया, लेकिन दोनों सियासी दलों की सियासत का एक कड़वा सच यह भी है कि दोनों ही दलों के फैसले दिल्ली में बैठे केंद्रीय नेताओं के रिमोट कंट्रोल से तय होते रहे।

नौ नवंबर 2000 को भाजपा ने अंतरिम सरकार की कमान नित्यानंद स्वामी के हाथों में सौंपी। बूढ़े हाथों में नन्हां उत्तराखंड स्वामी ठीक से संभाल भी नहीं पाए थे, कि उनकी कुर्सी पर भगत सिंह कोश्यारी को बैठा दिया गया। दो साल में ही भाजपा को दो मुख्यमंत्री बनाने पड़े। 2002 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनीं। हरीश रावत मुख्यमंत्री पद के मजबूत दावेदार माने जा रहे थे, लेकिन कांग्रेस आलाकमान के फरमान पर दिग्गज एनडी तिवारी को उत्तराखंड की कमान सौंप दी गई।

पांच साल मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड बेशक एनडी तिवारी के नाम है। मगर वे निष्कंटक राज नहीं कर पाए। उन्हें कदम-कदम पर अपनों के विरोध का सामना करना पड़ा। सियासी प्रबंधन के लिए उन्हें सबको खुश करने की नीति अपनानी पड़ी। थोक में लालबत्तियां बांटने के लिए उनकी खूब आलोचना हुई। 2007 में भाजपा सत्ता में लौटी। दिग्गज कोश्यारी और निशंक मुख्यमंत्री की कुर्सी के प्रबल दावेदार माने जा रहे थे। एक बार फिर दिल्ली का रिमोट कंट्रोल दबा और सत्ता की कमान मेजर जनरल बीसी खंडूड़ी को सौंप दी गई।

यूकेडी को साथ लेकर खंडूड़ी ने सरकार चलाई। उनका अनुशासन और सख्ती संगठन और विधायकों को नहीं सुहाया। फिर दिल्ली से रिमोट कंट्रोल ने कमाल दिखाया और जनरल की कुर्सी खिसक गई। सत्ता की बागडोर डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के हाथों में थमा दी गई। विदाई के साथ जनरल की नीतियां और फैसले भी विदा हो गए। निशंक ने अपने अंदाज में सरकार चलाई मगर विरोधी खेमों को उनकी तेजी रास नहीं आई। फिर निशंक भी सीएम की कुर्सी से विदा हुए। चुनाव पास थे, लिहाजा भाजपा के लिए फिर खंडूड़ी जरूरी हो गए। लोकपाल के लिए हो रहे आंदोलन के बीच जनरल खंडूड़ी ने ताबड़तोड़ पारी खेली।

2012 के चुनाव में खंडूड़ी हैं जरूरी का नारा भाजपा को सत्ता में नहीं ला सका। कांग्रेस की सरकार बनीं। मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे हरीश रावत फिर झटका खा गए। दिल्ली से कांग्रेस आलाकमान ने विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाकर भेजा। बहुगुणा का राजकाज कांग्रेस के असंतुष्टों को नहीं भा रहा था। 2013 की आपदा बहुगुणा का दुर्भाग्य बनीं। बहुगुणा की कुर्सी खिसकी। अंतत: हरीश रावत का मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा हुआ। मगर वह भी अपनों के असंतोष से नहीं बच पाए। वह 2016 में उत्तराखंड की राजनीति के सबसे बड़े विद्रोह के शिकार हो गए। नौ विधायकों ने भरी विधानसभा में कांग्रेस छोड़कर हरीश रावत को सदमे में डाल दिया। सियासी संकट का मामला अदालतों में पहुंचा।

2017 के चुनाव में हरीश रावत खुद दो सीटों से चुनाव हार गए। कांग्रेस अब तक सबसे कम संख्या 11 के आंकड़े पर सिमट गई। भाजपा 57 के प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई। त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री बनें। मगर चार साल पूरे भी नहीं हुए कि उनकी भी कुर्सी खिसक गई। तीरथ सिंह रावत को कमान सौंप दी गई। तीरथ दो महीने भी कुर्सी नहीं संभाल पाए।
मोदी-शाह ने युवा चेहरे पुष्कर सिंह धामी पर दांव लगाया। भाजपा ने धामी के चेहरे पर चुनाव लड़ा। राज्य में मिथक टूटा। चुनाव हारने के बाद भी केंद्रीय नेतृत्व ने धामी को मुख्यमंत्री कुर्सी पर बैठाया। कुल मिलाकर 22 वर्षों की इस राजनीतिक यात्रा में अस्थिरता उत्तराखंड राज्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य बना। राज्य के विकास और नीतियों को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।

संपादन: अनिल मनोचा

 

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