एक निश्चित कालखंड में मानव ने संसाधनों का ऐसा दोहन तथा संभावनाओं का ऐसा गला घोंटा जिसने भारत एवं इसके आसपास से चीतों की समूल जाति का ही नाश कर दिया। स्थिति ऐसी आन पड़ी है कि हम अब दक्षिणी अफ्रीकी देशों-नामीबिया, दक्षिण अफ्रीका एवं बोत्सवाना से चीतों को अपने यहां लाकर मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में बसाने की तैयारी कर रहे हैं। अफ्रीकी चीतों में सबसे ज्यादा आनुवंशिक विविधताएं हैं और चीतों की समूल जाति के वे पूर्वज भी रहे हैं।
भारत से 1952 में लुप्त घोषित हुए चीते की कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जहां मानव सचमुच प्राकृतिक संसाधनों एवं संभावनाओं के प्रति निष्ठुर रूपी न्यायाधीश दिखाई देता है। कूनो राष्ट्रीय उद्यान चीतों के संरक्षण के लिए सभी मानकों पर खरा उतरता है। 748 वर्ग किमी में फैला यह राष्ट्रीय उद्यान कुल 21 चीतों को रखने में सक्षम है। कूनो प्रारंभ से ही कैट परिवार के सभी चार बड़े सदस्यों-शेर, बाघ, तेंदुआ एवं चीता के सहजीवन का गवाह रहा है। चीता पुनर्वास की परियोजना को भारत में सवाना एवं शुष्क घास के मैदानों को पुनर्जीवित करने की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा जा रहा है। इससे भारत में संकटग्रस्त ग्रेट इंडियन बस्टर्ड एवं खरमोर जैसी पक्षियों की जाति भी संरक्षित हो सकती है। दक्षिण अफ्रीकी देशों से चीतों का भारत में आगमन अपने तरह का पहला कृत्रिम अंतर-महाद्वीपीय स्थानांतरण है। जहां नामीबिया जैसे देश मकर रेखा पर बसे हुए हैं वहीं कूनो राष्ट्रीय उद्यान कर्क रेखा के आसपास स्थित है।
ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अफ्रीकी चीते भारत में खुद को अनुकूलित कर पाते हैं या नहीं, क्योंकि चीतों का यह अंतर-महाद्वीपीय स्थानांतरण एक तरह का जलवायु कटिबंधीय स्थानांतरण ही है। चीतों के पुनर्वास के लिए हमें सुरक्षा घेरा को मजबूत करने की भी आवश्यकता है, ताकि उन्हें शिकारियों से कोई खतरा न हो। चीतों के भारत आगमन के पश्चात अन्य जीवों की उनके साथ सहजीविता भी एक बहुत गंभीर मुद्दा है जिस पर हमें ध्यान देने की आवश्यकता है।